Saturday, 3 December 2016

जन्‍तु

जन्‍तु


भारत का जंतु विज्ञान संबंधी सर्वेक्षण (जेड एसआई) जिसका मुख्‍यालय कोलकाता में है और 16 क्षेत्रीय स्‍टेशन है, भारत के जंतु संसाधन के सर्वेक्षण हेतु उत्‍तरदायी है। भारत में जलवायु और भौतिक दशाओं की अत्‍यधिक विविधता होने के कारण जंतुओं की 89451 प्रजातियों के साथ अत्‍यधिक विभिन्‍नता है जिसमें प्रोटिस्‍टा, मोलस्‍का, एंथ्रोपोडा, एम्‍फीबिया, स्‍तनधारी, सरिसृप, प्रोटोकोर डाटा के सदस्‍य पाइसेज, एब्‍स और अन्‍य इंवर्टीब्रेट्स शामिल हैं।
स्‍तनधारियों में शाही हाथी, गौड़ अथवा भारतीय बाइसन, जो मौजूदा गो जातीय पशुओं में विशालतम होता है, भारतीय गौंडा, हिमाचल की जंगली भेड़, हिरण, चीतल, नील गाय, चार सींगों वाला हिरण, भारतीय बारहसिंहां अथवा काला हिरण, इल वंश का अकेला प्रतिनिधि, शामिल हैं। बिल्लियों में बाघ और शेर सबसे अधिक विशाल हैं ; अन्‍य शानदार प्राणियों में धब्‍बेदार चीता, साह चीता, रेखांकित बिल्‍ली आदि भी पाए जाते हैं। स्‍तनधारियों की कई अन्‍य प्रजातियाँ अपनी सुन्‍दरता, रंग आभा और विलक्षणता के लिए उल्‍लेखनीय हैं। जंगली मुर्गी, हंस, बत्‍तख, मैना, तोता, कबूतर, सारस, धनेश और सूर्य पक्षी जैसे अनेक पक्षी जंगलों और गीले भू-भागों में रहते हैं।

नदियों और झीलों में मगरमच्‍छ ओर घडियाल पाये जाते हैं, घडियाल विश्‍व में मगरमच्‍छ वर्ग का एक मात्र प्रतिनिधि है। खारे पानी का घडियाल पूर्वी समुद्री तट और अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों में पाया जाता है। वर्ष 1974 में शुरू की गई घडियालों के प्रजनन हेतु परियोजना घडियाल को विलुप्‍त होने के बचाने में सहायक रही है।

विशाल हिमालय पर्वत जंतुओं की अत्‍यंत रोधक विभिन्‍नताएँ पाई जाती हैं जिन में जंगली भेड़ और बकरियाँ, मारखोर, आई बेकस, थ्रू ओर टेपिर शामिल है। पांडा और साह चीता पर्वतों के ऊपरी भाग में पाए जाते हैं।

कृषि का विस्‍तार, पर्यावरण का नाश, अत्‍यधिक उपयोग, प्रदूषण, सामुदायिक संरचना में विषों का असंतुलन शुरु होने, महामारी, बाढ़, सूखा और तूफानों के कारण वनस्‍पति के आच्‍छादन में क्षीणता फलस्‍वरूप वनस्‍पति और जन्‍तु समूह की हानि हुई है। स्‍तनधारियों की 39 प्रजातियाँ, पक्षियों की 72 प्रजातियाँ,सरीसृप वर्ग की 17 प्रजातियाँ, एम्‍फीबियन की 3 प्रजातियाँ, मछलियों की दो प्रजातियाँ, और तितलियों, शलभों और भृंगों की काफी संख्‍या को असुरक्षित और संकट में माना गया है।

वनस्‍पति

वनस्‍पति


उष्‍ण से लेकर उत्तर ध्रुव तक विविध प्रकार की जलवायु के कारण भारत में अनेक प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती हैं, जो समान आकार के अन्य देशों में बहुत कम मिलती हैं। भारत को आठ वनस्‍पति क्षेत्रों में बांटा जा सकता है- पश्चिमी हिमाचल, पूर्वी हिमाचल, असम, सिंधु नदी का मैदानी क्षेत्र, दक्कन, गंगा का मैदानी क्षेत्र, मालाबार और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह।

पश्चिमी हिमाचल क्षेत्र कश्‍मीर के कुमाऊं तक फैला है। इस क्षेत्र के शीतोष्ण कटिबंधीय भाग में चीड़, देवदार, शंकुधारी वृक्षों (कोनिफर) और चौड़ी पत्ती वाले शीतोष्ण वृक्षों के वनों का बाहुल्य है। इससे ऊपर के क्षेत्रों में देवदार, नीली चीड़, सनोवर वृक्ष और श्वेत देवदार के जंगल हैं। अल्पाइन क्षेत्र शीतोष्ण क्षेत्र की ऊपरी सीमा से 4,750 मीटर या इससे अधिक ऊंचाई तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र में ऊंचे स्थानों में मिलने वाले श्वेत देवदार, श्वेत भोजपत्र और सदाबहार वृक्ष पाए जाते हैं। पूर्वी हिमालय क्षेत्र सिक्किम से पूर्व की ओर शुरू होता है और इसके अंतर्गत दार्जिलिंग, कुर्सियांग और उसके साथ लगे भाग आते हैं। इस शीतोष्ण क्षेत्र में ओक, जायवृक्ष, द्विफल, बड़े फूलों वाला सदाबहार वृक्ष और छोटी बेंत के जंगल पाए जाते हैं। असम क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र और सुरमा घाटियां आती हैं जिनमें सदाबहार जंगल हैं और बीच बीच में घनी बांसों तथा लंबी घासों के झुरमुट हैं। सिंधु के मैदानी क्षेत्र में पंजाब, पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी गुजरात के मैदान शामिल हैं। यह क्षेत्र शुष्क और गर्म है और इसमें प्राकृतिक वनस्पतियां मिलती हैं। गंगा के मैदानी क्षेत्र का अधिकतर भाग कछारी मैदान है और इनमें गेहूं, चावल और गन्ने की खेती होती है। केवल थोड़े से भाग में विभिन्न प्रकार के जंगल हैं। दक्कन क्षेत्र में भारतीय प्रायद्वीप की सारी पठारी भूमि शामिल है, जिसमें पतझड़ वाले वृक्षों के जंगलों से लेकर तरह-तरह की जंगली झाडि़यों के वन हैं। मालाबार क्षेत्र के अधीन प्रायद्वीप तट के साथ-साथ लगने वाली पहाड़ी तथा अधिक नमी वाली पट्टी है। इस क्षेत्र में घने जंगल हैं। इसके अलावा, इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण व्यापारिक फसलें जैसे नारियल, सुपारी, काली मिर्च, कॉफी और चाय, रबड़ तथा काजू की खेती होती है। अंडमान क्षेत्र में सदाबहार, मैंग्रोव, समुद्र तटीय और जल प्‍लावन संबंधी वनों की अधिकता है। कश्‍मीर से अरुणाचल प्रदेश तक के हिमालय क्षेत्र (नेपाल, सिक्किम, भूटान, नागालैंड) और दक्षिण प्रायद्वीप में क्षेत्रीय पर्वतीय श्रेणियों में ऐसे देशी पेड़-पौधों की अधिकता है ,जो दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं मिलते।

वन संपदा की दृष्टि से भारत काफी संपन्न है। उपलब्‍ध आंकड़ों के अनुसार पादप विविधता की दृष्टि से भारत का विश्‍व में दसवां और एशिया में चौथा स्‍थान है। लगभग 70 प्रतिशत भूभाग का सर्वेक्षण करने के बाद अब तक भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण संस्था ने पेड़-पौधों की 46,000 से अधिक प्रजातियों का पता लगाया है। वाहिनी वनस्पति के अंतर्गत 15 हजार प्रजातियां हैं। देश के पेड़-पौधों का विस्तृत अध्ययन भारतीय सर्वेक्षण संस्था और देश के विभिन्न भागों में स्थित उसके 9 क्षेत्रीय कार्यालयों तथा कुछ विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संगठनों द्वारा किया जा रहा है।

वनस्‍पति नृजाति विज्ञान के अंतर्गत विभिन्न पौधों और उनके उत्पादों की उपयोगिता के बारे में अध्ययन किया जाता है। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण ने ऐसे पेड़ पौधों का वैज्ञानिक अध्ययन किया है। देश के विभिन्न जनजातीय क्षेत्रों में कई विस्तृत नृजाति सर्वेक्षण किए जा चुके हैं। वनस्पति नृजाति विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण पौधों की 800 प्रजातियों की पहचान की गई और देश के विभिन्न जनजातियों क्षेत्रों से उन्हें इकट्ठा किया गया है।

कृषि, औद्योगिक और शहरी विकास के लिए वनों के विनाश के कारण अनेक भारतीय पौधे लुप्‍त हो रहे है। पौधों की लगभग 1336 प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है तथा लगभग 20 प्रजातियां 60 से 100 वर्षों के दौरान दिखाई नहीं पड़ी हैं। संभावना है कि ये प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण रेड डाटा बुक नाम से लुप्त प्राय पौधों की सूची प्रकाशित करता है।

जलवायु

जलवायु


भारत की जलवायु आमतौर पर उष्‍णकटिबंधीय है।
यहां चार ऋतुएं होती हैं:
  1. शीत ऋतु (जनवरी-फरवरी),
  2. ग्रीष्‍म ऋतु (मार्च-मई)
  3. वर्षा ऋतु या दक्षिण पश्चिमी मानसून का मौसम (जून-सितम्‍बर) और
  4. मॉनसून पश्‍च ऋतु (अक्‍तूबर-दिसम्‍बर), जिसे दक्षिणी प्रायद्वीप में पूर्वोत्‍तर मानसून भी कहा जाता है।


भारत की जलवायु पर दो प्रकार की मौसमी हवाओं का प्रभाव पड़ता है - पूर्वोत्‍तर मानसून और दक्षिण पश्चिमी मानसून। पूर्वोत्तर मानसून को आमतौर पर शीत मानसून कहा जाता है। इस दौरान हवाएं स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं, जो हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती हैं। देश में अधिकांश वर्षा दक्षिण पश्चिमी मानसून की वजह से होती है।

नदिया

नदिया


भारत की नदियां चार समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं –(1), हिमालय की नदियां, (2) प्रायद्वीपीय नदियां, (3) तटवर्ती नदियां और (4) अंतःस्थलीय प्रवाह क्षेत्र की नदियां।

हिमालय की नदियां बारहमासी है, जिन्हें पानी आमतौर पर बर्फ पिघलने से मिलता है। इनमें वर्षभर निर्बाध प्रवाह बना रहता है। मानसून के महीने में हिमालय पर भारी वर्षा होती है, जिससे नदियों में पानी बढ़ जाने के कारण अक्सर बाढ़ आ जाती है। दूसरी तरफ प्रायद्वीप की नदियों में सामान्यतः वर्षा का पानी रहता है, इसलिए पानी की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। अधिकांश नदियां बारहमासी नहीं हैं। तटीय नदियां, विशेषकर पश्चिमी तट की, कम लंबी हैं और इनका जलग्रहण क्षेत्र सीमित है। इनमें से अधिकतर में एकाएक पानी भर जाता है। पश्चिमी राजस्थान में नदियां बहुत कम हैं। इनमें से अधिकतर थोड़े दिन ही बहती हैं।

सिंधु और गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों से हिमालय की मुख्य नदी प्रणालियां बनती हैं। सिंधु नदी विश्व की बड़ी नदियों में से एक है। तिब्बत में मानसरोवर के निकट इसका उद्गम स्थल है। यह भारत से होती हुई पाकिस्तान जाती है और अंत में कराची के निकट अरब सागर में मिल जाती है। भारतीय क्षेत्र में बहने वाली इसकी प्रमुख सहायक नदियों में सतलुज (जिसका उद्गगम तिब्बत में होता है), व्यास, रावी, चेनाब और झेलम हैं। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना अन्य महत्वपूर्ण नदी प्रणाली है और भागीरथी और अलकनंदा जिसकी उप-नदी घाटियां हैं, इनके देवप्रयाग में आपस में मिल जाने से गंगा उत्पन्न होती है। यह उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों से होती हुई बहती है। राजमहल पहाडियों के नीचे भागीरथी बहती है, जो कि पहले कभी मुख्यधारा में थी, जबकि पद्मा पूर्व की ओर बहती हुई बांग्लादेश में प्रवेश करती है। यमुना, रामगंगा, घाघरा, गंडक, कोसी, महानंदा और सोन नदियां गंगा की प्रमुख सहायक नदियां हैं। चंबल और बेतवा महत्वपूर्ण उपसहायक नदियां हैं जो गंगा से पहले यमुना में मिलती हैं। पद्मा और ब्रह्मपुत्र बांग्लादेश के अंदर मिलती हैं और पद्मा या गंगा के रूप में बहती रहती हैं। ब्रह्मपुत्र का उद्भव तिब्बत में होता है जहां इसे ‘सांगपो’ के नाम से जाना जाता है और यह लंबी दूरी तय करके भारत में अरुणाचलप्रदेश में प्रवेश करती है जहां इसे दिहांग नाम मिल जाता है। पासीघाट के निकट, दिबांग और लोहित ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती हैं, फिर यह नदी असम से होती हुई धुबरी के बाद बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है।

भारत में ब्रह्मपुत्र की प्रमुख सहायक नदियों में सुबानसिरी, जिया भरेली, धनश्री, पुथीमारी, पगलादीया और मानस हैं। बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र में तीस्ता आदि नदियां मिलकर अंत में गंगा में मिल जाती हैं। मेघना की मुख्यधारा बराक नदी का उद्भव मणिपुर की पहाडियों में होता है। इसकी मुख्य सहायक नदियां मक्कू, त्रांग, तुईवई, जिरी, सोनाई, रुकनी, काटाखल, धनेश्वरी, लंगाचीनी, मदुवा और जटिंगा हैं। बराक बांग्लादेश में तब तक बहती रहती है जब तक कि भैरव बाजार के निकट गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी में इसका विलय नहीं हो जाता।
दक्कन क्षेत्र में प्रमुख नदी प्रणालियां बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती हैं। बहने वाली प्रमुख अंतिम नदियों में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी आदि हैं। नर्मदा और ताप्ती पश्चिम की ओर बहने वाली मुख्य नदियां हैं।

सबसे बड़ा थाला दक्षिणी प्रायद्वीप में गोदावरी का है। इसमें भारत के कुल क्षेत्र का लगभग 10 प्रतिशत भाग शामिल है। प्रायद्वीपीय भारत में दूसरा सबसे बड़ा थाला कृष्णा नदी का है और तीसरा बड़ा थाला महानदी का है। दक्षिण की ऊपरी भूमि में नर्मदा अरब सागर की ओर है और दक्षिण में कावेरी बंगाल की खाड़ी में गिरती है, इनके थाले बराबर विस्तार के हैं, यद्यपि उनकी विशेषताएं और आकार भिन्न-भिन्न हैं।
कई तटीय नदियां हैं जो तुलनात्मक रूप से छोटी हैं। ऐसी गिनी-चुनी नदियां पूर्वी तट के डेल्टा के निकट समुद्र में मिल जाती हैं जबकि पश्चिमी तट पर ऐसी करीब 600 नदियां हैं।

राजस्थान में कई नदियां समुद्र में नहीं मिलती। वे नमक की झीलों में मिलकर रेत में समा जाती हैं क्योंकि इनका समुद्र की ओर कोई निकास नहीं है। इनके अलावा रेगिस्तानी नदियां लूनी तथा अन्य, माछू रूपेन, सरस्वती, बनांस तथा घग्घर हैं जो कुछ दूरी तक बहकर मरुस्थल में खो जाती हैं।

भूगर्भीय संरचना

भूगर्भीय संरचना

भू‍तत्वीय संरचना भी प्राकृतिक संरचना की तरह तीन भागों में बांटी जा सकती है: हिमाचल तथा उससे संबद्ध पहाड़ों का समूह, सिंधु और गंगा का मैदान तथा प्रायद्वीपीय भाग।

उत्‍तर में हिमालय पर्वत का क्षेत्र, पूर्व में नगालुशाई पहाड़, पर्वत निर्माण प्रक्रिया के क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र का बहुत सा भाग, जो अब संसार में कुछ मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है, लगभग 60 करोड़ वर्ष पहले समुद्र था। लगभग 7 करोड़ वर्ष पहले शुरु हुई पर्वत-निर्माण प्रक्रिया के क्रम में तलछट और चट्टानों के तल बहुत ऊंचे उठ गए। उन पर मौसमी और कटाव तत्वों ने काम किया, जिससे वर्तमान उभार अस्तित्व में आए। सिंधु और गंगा के विशाल मैदान कछारी मिट्टी के भाग हैं, जो उत्तर में हिमालय को दक्षिण के प्रायद्वीप से अलग करते हैं।

प्रायद्वीप अपेक्षाकृत स्थायी और भूकंपीय हलचलों से मुक्त क्षेत्र है। इस भाग में प्रागैतिहासिक काल की लगभग 380 करोड़ वर्ष पुरानी रूपांतरित चट्टानें हैं। शेष भाग गोंडवाना का कोयला क्षेत्र तथा बाद के मिट्टी के जमाव से बना भाग और दक्षिणी लावे से बनी चट्टानें हैं।

प्राकृतिक संरचना

प्राकृतिक संरचना


मुख्य भूमि चार भागों में बंटी है - विस्तृत पर्वतीय प्रदेश, सिंधु और गंगा के मैदान, रेगिस्तान क्षेत्र और दक्षिणी प्रायद्वीप।
हिमालय की तीन श्रृंखलाएं हैं, जो लगभग समानांतर फैली हुई हैं। इसके बीच बड़े - बड़े पठार और घाटियां हैं, इनमें कश्‍मीर और कुल्‍लू जैसी कुछ घाटियां उपजाऊ, विस्‍तृत और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर हैं। संसार की सबसे ऊंची चोटियों में से कुछ इन्‍हीं पर्वत श्रृंखलाओं में हैं। अधिक ऊंचाई के कारण आना -जाना केवल कुछ ही दर्रों से हो पाता है, जिनमें मुख्‍य हैं - चुंबी घाटी से होते हुए मुख्‍य भारत-तिब्‍बत व्‍यापार मार्ग पर जेलप-ला और नाथू-ला दर्रे, उत्तर-पूर्व दार्जिलिंग तथा कल्‍पा (किन्‍नौर) के उत्तर - पूर्व में सतलुज घाटी में शिपकी-ला दर्रा। पर्वतीय दीवार लगभग 2,400 कि.मी. की दूरी तक फैली है, जो 240 कि.मी. से 320 कि.मी. तक चौड़ी है। पूर्व में भारत तथा म्‍यांमार और भारत एवं बांग्लादेश के बीच में पहाड़ी श्रृंखलाओं की ऊंचाई बहुत कम है। लगभग पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई गारो, खासी, जैंतिया और नगा पहाडियां उत्तर से दक्षिण तक फैली मिज़ो तथा रखाइन पहाडि़यों की श्रृंखला से जा मिलती हैं।

सिंधु और गंगा के मैदान लगभग 2,400 कि.मी. लंबे और 240 से 320 कि.मी. तक चौड़े हैं। ये तीन अलग अलग नदी प्रणालियों - सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के थालों से बने हैं। ये संसार के विशालतम सपाट कछारी विस्तारों और पृथ्वी पर बने सर्वाधिक घने क्षेत्रों में से एक हैं। दिल्ली में यमुना नदी और बंगाल की खाड़ी के बीच लगभग 1600 किमी की दूरी में केवल 200 मीटर की ढलान है।

रेगिस्तानी क्षेत्र को दो भागों में बांटा जा सकता है - विशाल रेगिस्तान और लघु रेगिस्तान। विशाल रेगिस्तान कच्‍छ के रण के पास से उत्तर की ओर लूनी नदी तक फैला है। राजस्थान सिंध की पूरी सीमा रेखा इसी रेगिस्तान में है। लघु रेगिस्तान जैसलमेर और जोधपुर के बीच में लूनी नदी से शुरू होकर उत्तरी बंजर भूमि तक फैला हुआ है। इन दोनों रेगिस्तानों के बीच बंजर भूमि का क्षेत्र है, जिसमें पथरीली भूमि है। यहां कई स्थानों पर चूने के भंडार हैं।
दक्षिणी प्रायद्वीप का पठार 460 से 1,220 मीटर तक के ऊंचे पर्वत तथा पहाडि़यों की श्रृंखलाओं द्वारा सिंधु और गंगा के मैदानों से पृथक हो जाता है। इसमें प्रमुख हैं अरावली, विंध्‍य, सतपुड़ा, मैकाल और अजंता। प्रायद्वीप के एक तरफ पूर्वी घाट है, जहां औसत ऊंचाई 610 मीटर के करीब है और दूसरी तरफ पश्चिमी घाट, जहां यह ऊंचाई साधारणतया 915 से 1,220 मीटर है, कहीं कहीं यह 2,440 मीटर से अधिक है। पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच समुद्र तट की एक संकरी पट्टी है, जबकि पूर्वी घाट और बंगाल की खाड़ी के बीच चौड़ा तटीय क्षेत्र है। पठार का यह दक्षिणी भाग नीलगिरि की पहाडियों से बना है, जहां पूर्वी और पश्चिमी घाट मिलते हैं। इसके पार फैली कार्डामम पहाडि़यां पश्चिमी घाट क विस्तार मानी जाती हैं।

पर्यावरण एवं वन

पर्यावरण एवं वन

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के प्रमुख कार्य देश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे झीलें और नदियां, इसकी जैव विविधता, वन और वन्य जीवन, जानवरों के संरक्षण को सुनिश्चित करना और प्रदूषण से बचाव व उसे समाप्त करने से संबंधित नीतियों व कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करना हैं। इन नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करते समय मंत्रालय सतत विकास और मनुष्यों के कल्याण से जुड़े सिद्धांतों के बारे में भी ध्यान रखता है। मंत्रालय देश में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (यूएनईपी), दक्षिण एशिया सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (एसएसीपीई), अंतरराष्ट्रीय समन्वित पर्वत विकास केंद्र (आईसीआईएमओडी) के लिए केंद्रीय एजेंसी के रूप में नामित है और वह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यूएनसीईडी) की अनुवर्ती कार्यवाही पर भी ध्यान देता है। इस मंत्रालय पर बहुपक्षीय निकायों जैसे सतत विकास आयोग(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (सीएसडी), विश्व पर्यावरण सुविधा(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (जीईएफ) और पर्यावरण से जुड़ी क्षेत्रीय इकाईयां जैसे एशिया और प्रशांत सामाजिक और आर्थिक परिषद(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (ईएससीएपी) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (दक्षेस) से संबंधित मामलों का भी उत्तरदायित्व है।

मंत्रालय के मुख्य उद्देश्यों में वनस्पतियों, जीवजंतुओं और वन्यजीवों का संरक्षण और सर्वेक्षण, प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण, वनरोपण और वन क्षेत्र का विकास, पर्यावरण की सुरक्षा एवं पशुओं का कल्याण सुनिश्चित करना शामिल है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अनेक कानून और विनियामक उपाय किए गए हैं। कानूनों के अलावा राष्ट्रीय संरक्षण रणनीति तथा पर्यावरण और विकास पर नीतिगत वक्तव्य 1992, राष्ट्रीय वन नीति 1988, प्रदूषण नियंत्रण वक्तव्य 1992 और राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 भी विकसित की गई है। इन उद्देश्यों की पूर्ति पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन, पर्यावरण पुनर्जनन, पर्यावरण और वानिकी अनुसंधान, शिक्षा और प्रशिक्षण, पर्यावरण की जानकारी, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और पर्यावरण के प्रति जागरूकता के सृजन को लागू करने के लिए संगठनों की सहायता के माध्यम से कर रहे हैं

सामान्य अवलोकन

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) का प्रमुख कार्य देश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे झीलें और नदियां, इसकी जैव-विविधता, वन और वन्य जीवन, जानवरों के संरक्षण को सुनिश्चित करना और प्रदूषण से बचाव व उसे समाप्त करने से संबंधित नीतियों व कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करना है। इन नीतियों को लागू करते समय मंत्रालय सतत विकास और मनुष्यों के कल्याण से जुड़े सिद्धांतों का भी ध्यान रखता है। मंत्रालय देश में संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम(बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) (यूएनईपी), दक्षिण एशिया सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम (एसएसीईपी), अंतर्राष्ट्रीय समन्वित पर्वत विकास केंद्र (आईसीआईएमओडी) के लिए केंद्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है और वह संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यूएनसीईडी) की अनुवर्ती कार्यवाही पर भी ध्यान देता है। इस मंत्रालय पर बहुपक्षीय निकायों जैसे सतत विकास आयोग (सीएसडी), विश्व पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) और पर्यावरण से जुड़ी क्षेत्रीय इकाइयां जैसे एशिया और प्रशांत सामाजिक और आर्थिक परिषद (ईएससीएपी) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन से संबंधित मामलों का भी उत्तरदायित्व है।
मंत्रालय के मुख्य कार्य निम्न हैं :
  • वनस्पतियों, जीव-जंतुओं और वन्यजीवों का संरक्षण और सर्वेक्षण
  • प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण
  • वनरोपण और वन क्षेत्र का विकास
  • पर्यावरण की सुरक्षा एवं
  • पशुओं का कल्याण सुनिश्चित करना।
इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अनेक कानून और विनियामक उपाय हैं। कानूनों के अलावा राष्ट्रीय संरक्षण रणनीति और पर्यावरण और विकास पर नीतिगत वक्तव्य 1992, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 1988, प्रदूषण नियंत्रण वक्तव्य 1992 और राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 भी भविष्य में कार्रवाई की देखरेख करेंगे।

शिक्षा

शिक्षा


भारत में शिक्षा विभाग की स्थापना करीब सौ वर्ष पहले हुई थी। देश की स्वतंत्रता के पहले सन 1910 में शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए शिक्षा विभाग का गठन किया गया था। हालांकि 15 अगस्त, सन 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद 29 अगस्त, सन 1947 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत पूर्ण रूप से शिक्षा को समर्पित 'शिक्षा विभाग' की स्थापना फिर से की गई। हालांकि इस विभाग के नाम कार्यप्रणाली और जिम्मेदारियों में स्वतंत्रता के बाद भी समय-समय पर कई बदलाव किए जाते रहे हैं। वर्तमान में मंत्रालय के पास शिक्षा के दो विभाग हैं

सामान्य अवलोकन

सन् 1976 से पूर्व शिक्षा पूर्ण रूप से राज्‍यों का उत्तरदायित्‍व था। संविधान द्वारा 1976 में किए गए जिस संशोधन से शिक्षा को समवर्ती सूची में डाला गया, उस के दूरगामी परिणाम हुए। आधारभूत, वित्तीय एवं प्रशासनिक उपायों के द्वारा राज्‍यों एवं केन्‍द्र सरकार के बीच नई जिम्‍मेदारियों को बांटने की आवश्‍यकता महसूस की गई। जहां एक ओर शिक्षा के क्षेत्र में राज्‍यों की भूमिका एवं उनके उत्तरदायित्‍व में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, वहीं केन्‍द्र सरकार ने शिक्षा के राष्‍ट्रीय एवं एकीकृत स्‍वरूप को सुदृढ़ करने का गुरुतर भार भी स्‍वीकार किया। इसके अंतर्गत सभी स्‍तरों पर शिक्षकों की योग्‍यता एवं स्‍तर को बनाए रखने एवं देश की शैक्षिक जरूरतों का आकलन एवं रखरखाव शामिल है।

केंद्र सरकार ने अपनी अगुवाई में शैक्षिक नीतियों एवं कार्यक्रम बनाने और उनके क्रियान्‍वयन पर नजर रखने के कार्य को जारी रखा है। इन नीतियों में सन् 1986 की राष्‍ट्रीय शिक्षा-नीति (एनपीई) तथा वह कार्यवाही कार्यक्रम (पीओए) शामिल है, जिसे सन् 1992 में अद्यतन किया गया। संशोधित नीति में एक ऐसी राष्‍ट्रीय शिक्षा प्रणाली तैयार करने का प्रावधान है जिसके अंतर्गत शिक्षा में एकरूपता लाने, प्रौढ़शिक्षा कार्यक्रम को जनांदोलन बनाने, सभी को शिक्षा सुलभ कराने, बुनियादी (प्राथमिक) शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने, बालिका शिक्षा पर विशेष जोर देने, देश के प्रत्‍येक जिले में नवोदय विद्यालय जैसे आधुनिक विद्यालयों की स्‍थापना करने, माध्‍यमिक शिक्षा को व्‍यवसायपरक बनाने, उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में विविध प्रकार की जानकारी देने और अंतर अनुशासनिक अनुसंधान करने, राज्‍यों में नए मुक्‍त विश्‍वविद्यालयों की स्‍थापना करने, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषदको सुदृढ़ करने तथा खेलकूद, शारीरिक शिक्षा, योग को बढ़ावा देने एवं एक सक्षम मूल्‍यांकन प्रक्रिया अपनाने के प्रयास शामिल हैं। इसके अलावा शिक्षा में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु एक विकेंद्रीकृत प्रबंधन ढांचे का भी सुझाव दिया गया है। इन कार्यक्रमों के कार्यान्‍वयन में लगी एजेंसियों के लिए विभिन्‍न नीतिगत मानकों को तैयार करने हेतु एक विस्‍तृत रणनीति का भी पीओए में प्रावधान किया गया है।

एनपीई द्वारा निर्धारित राष्‍ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक ऐसे राष्‍ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे पर आधारित है, जिसमें अन्‍य लचीले एवं क्षेत्र विशेष के लिए तैयार घटकों के साथ ही एक समान पाठ्यक्रम रखने का प्रावधान है। जहां एक ओर शिक्षा नीति लोगों के लिए अधिक अवसर उपलब्‍ध कराए जाने पर जोर देती है, वहीं वह उच्‍च एवं तकनीकी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली को मजबूत बनाने का आह्वान भी करती है। शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में कुल राष्‍ट्रीय आय का कम से कम 6 प्रतिशत धन लगाने पर भी जोर देती है।

केंद्रीय शिक्षा परामर्शदाता बोर्ड (सीएबीई) शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीय और राज्‍य सरकारों को परामर्श देने के लिए गठित सर्वोच्‍च संस्‍था है। इसका गठन 1920 में किया गया था और 1923 में व्‍यय में कमी लाने के लिए इसे भंग कर दिया गया। 1935 में इसे पुन: गठित किया गया और यह बोर्ड 1994 तक अस्तित्व में रहा। इस तथ्‍य के बावजूद कि विगत में सीएबीई के परामर्श पर महत्‍वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं और शैक्षिक एवं सांस्‍कृतिक विषयों पर व्‍यापक विचार-विमर्श एवं परीक्षण हेतु इसने एक मंच उपलब्‍ध कराया है, दुर्भाग्‍यवश मार्च, 1994 में बोर्ड के बढ़े हुए कार्यकाल की समाप्‍ति के बाद इसका पुनर्गठन नहीं किया गया। देश में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों एवं राष्‍ट्रीय नीति की समीक्षा की वर्तमान जरूरतों को देखते हुए सीएबीई की भूमिका और भी बढ़ जाती है। अत: यह महत्‍व का विषय है कि केंद्र और राज्‍य सरकारें, शिक्षाविद एवं समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधि आपसी विचार-विमर्श बढ़ाएं और शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय लेने की ऐसी सहभागी प्रक्रिया (प्रणाली) तैयार करें, जिससे संघीय ढ़ांचे की हमारी नीति को मजबूती मिले। राष्‍ट्रीय नीति 1986 (जैसा कि 1992 में संशोधित किया गया) में भी यह प्रावधान है कि शैक्षिक विकास की समीक्षा करने तथा व्‍यवस्‍था एवं कार्यक्रमों पर नजर रखने के लिए आवश्‍यक परिवर्तनों को निर्धारण करने में भी सीएबीई की महत्‍वपूर्ण भूमिका होगी। यह मानव संधान विकास के विभिन्‍न क्षेत्रों में आपसी तालमेल एवं परस्‍पर संपर्क सुनिश्‍चित करने के लिए तैयार की गई उपयुक्‍त प्रणाली के माध्‍यम से अपना कार्य करेगा। तदनुसार ही सरकार ने जुलाई, 2004 में सीएबीई का पुनर्गठन किया और पुनर्गठित सीएबीई की पहली बैठक 10 एवं 11 अगस्‍त, 2004 को आयोजित की गई। विभिन्‍न विषयों के विद्वानों के अलावा लोकसभा एवं राज्‍यसभा के सदस्‍यगण, केंद्र, राज्‍य एवं केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनों के प्रतिनिधि इस बोर्ड के सदस्‍य होते हैं।

पुनर्गठित सीएबीई की 10 एवं 11 अगस्‍त, 2004 को हुई बैठक में कुछ ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर विशेष विचार-विमर्श करने की आवश्‍यकता महसूस की गई। तदनुसार निम्‍नलिखित विषयो के लिए सीएबीई की सात समितियां बनाई गई –
  • नि:शुल्‍क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक तथा प्राथमिक शिक्षा से जुड़े अन्‍य मामले
  • बालिका शिक्षा तथा एक समान स्‍कूल प्रणाली
  • एक समान माध्‍यमिक शिक्षा
  • उच्‍च शिक्षा संस्‍थानों को स्‍वायत्तता
  • स्‍कूल पाठ्यक्रम में सांस्‍कृतिक शिक्षा का एकीकरण
  • सरकार-संचालित प्रणाली के बाहर चल रहे स्‍कूलों के लिए पाठ्य पुस्‍तकों एवं समानांतर पाठ्य पुस्‍तकों के लिए नियामक व्‍यवस्‍था
  • उच्‍च एवं तकनीकी शिक्षा को वित्तीय सहायता देना।
उपर्युक्‍त हेतु समितियों का गठन सितंबर, 2004 में किया गया। इनसे मिली रिपोर्टों पर 14-15 जुलाई, 2005 को नई दिल्‍ली में हुई सीएबीई की 53वीं बैठक में विचार-विमर्श किया गया। इन सभी प्राप्‍त रिपोर्टों से उभरे कार्य-बिंदुओं की पहचान करने तथा उन पर एक निश्‍चित कार्यावधि में अमल करने के लिए कार्य-योजना तैयार करने के आवश्‍यक उपाया किए जा रहे हैं। इसके साथ ही सीएबीई की तीन स्‍थायी समितियां बनाए जाने का निर्णय किया गया है -
  1. नई शिक्षा नीति को लागू कराने को विशेष आवश्‍यकता सहित बच्‍चों एवं युवाओं के लिए सन्‍निहित शिक्षा हेतु स्‍थायी समिति,
  2. राष्‍ट्रीय साक्षरता मिशन को निर्देश देने के लिए साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा पर स्‍थायी समिति,
  3. बच्‍चे की शिक्षा, बाल विकास, पोषण एवं स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी विभिन्‍न योजनाओं को ध्‍यान में रखते हुए बाल विकास प्रयासों के समन्‍वयन और एकीकरण मामलों के लिए एक स्‍थायी समिति।
सीएबीई की 6-7 सितंबर 2005 को हुई बैठक की सिफारिश के आधार पर एनसीईआरटी द्वारा पाठ्य पुस्‍तकों के पाठ्यक्रम तैयार करने के प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए एक निगरानी समिति गठित की गई है। प्रत्‍यापित और संबद्ध करने वाली संस्‍थाओं में नेट लाइन के माध्‍यम से आवेदन स्‍वीकार कर उस पर कार्यवाही करने और अन्‍य मामलों में पारदर्शिता लाने के उद्देश्‍य से इनकी कार्यप्रणाली में सुधार के लिए कदम उठाए गए हैं। उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में नए विचारों के समावेश और सुधार प्रक्रिया पर निगरानी के लिए राष्‍ट्रीय उच्‍च शिक्षा आयोग के गठन पर विचार-विमर्श शुरू हो गया है।

शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी विभिन्‍न परियोजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्‍वयन हेतु भारत एवं विदेशों से प्राप्‍त होने वाली छोटी से छोटी सहायता (दान) राशि की सुगमता से प्राप्‍ति के लिए सरकार ने समिति पंजीयन अधिनियम, 1860 के अंतर्गत एक पंजीकृत सोसायटी के तौर पर ‘भारत सहायता कोष’ का गठन किया है। 09 जनवरी, 2003 को ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ के अवसर पर आयोजित समारोह में विधिवत प्रारंभ किया गया। यह कोष शिक्षा के क्षेत्र से संबंधित सभी गतिविधियों एवं क्रियाकलापों के लिए निजी संगठनों, व्‍यक्तियों, कार्पोरेट (उद्योग) जगत, केंद्र एवं राज्‍य सरकारों, प्रवासी भारतीयों एवं भारतीय मूल के लोगों से दान/अंशदान तथा सहायता राशि प्राप्‍त कर सकेगा।

नीतियां और योजनाएं

भारतीय सरकार समय-समय पर सभी स्‍तरों पर नीतियों तथा योजनाओं की घोषणा करती है। इस खंड में हम ने आप को सरकार की अनेक नीतियों तथा योजनाओं के बारे में सहज तथा एक स्‍थल पर सूचना उपलब्‍ध कराने का प्रयास किया है।
  • शिक्षा का अधिकार अधिनियम - 2009(पीडीएफ फाइल जो नई विंडों में खुलती है) 
  • मानवीय मूल्यों में शिक्षा को मजबूत बनाने के लिए वित्तीय सहायता योजना- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट
  • गैर सरकारी संगठन भागीदारी प्रणाली(पीडीएफ फाइल जो नई विंडों में खुलती है) 
  • जनशाला कार्यक्रम(पीडीएफ फाइल जो नई विंडों में खुलती है) 
  • शिक्षा गारंटी योजना (ईजीएस) / वैकल्पिक व नवाचारी शिक्षा (एआईई)- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट
  • कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (केजीबीवी)- बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट
  • प्रौढ़ शिक्षा(बाहरी विंडो में खुलने वाली वेबसाइट)
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 (1992 में यथा संशोधित)(पीडीएफ फाइल जो नई विंडों में खुलती है) 

परिवहन

परिवहन


बदलते आर्थिक परिदृश्‍य के साथ, बाजारों के वैश्‍वीकरण, अंतरराष्‍ट्रीय आर्थिक एकीकरण, कारोबार तथा व्‍यवसाय के अवरोधों को हटाने की जरूरत तथा बढ़ी प्रतिस्‍पर्धा ने परिवहन की आवश्‍यकताओं को बहुत बढ़ा दिया है। यह सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण और आधारभूत ढ़ांचे के निर्माण के लिए जरूरी आवश्‍यकताओं में से एक है, जो अवसरों के विस्‍तार त‍था प्रतिस्‍पर्धा को बढ़ाने या तोड़ने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है।

परिवहन विभाग को दिल्‍ली में एक कुशल सार्वजनिक संवहन प्रणाली की व्‍यवस्‍था करने, वाहन जनित प्रदूषण को नियंत्रित करने, वाहनों का पंजीकरण करने, चालक लाइसेंस जारी करने, विभिन्‍न परमिट जारी करने, सड़क कर का संग्रहण करने जैसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्‍व सौंपे गये हैं। इस विभाग को देश के परिवहन संबंधी सभी पहलुओं के नीति निर्माण, समन्‍वय, क्रियान्‍वयन, अनुवीक्षण तथा विनियामक कार्य भी सौंपे गए हैं

सामान्य अवलोकन

परिवहन की एक सुसंगठित तथा सह समन्वित प्रणाली देश की स्‍थायी आर्थिक वृद्धि महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। देश की वर्तमान परिवहन प्रणाली ने परिवहन की अनेक विधियां शामिल हैं जिनमें रेल, सड़क, तटीय जहाजरानी, हवाई परिवहन इत्‍यादि शामिल हैं। परिवहन ने विगत वर्षों में नेटवर्क के विस्‍तार तथा प्रणाली के उत्‍पादन, दोनों में पर्याप्त वृद्धि दर्ज की है। जहाजरानी मंत्रालय, सड़क परिवहन तथा राजमार्ग मंत्रालय परिवहन की विभिन्न विधियों के विकास के लिए, रेलवे तथा नागर विमानन को छोड़कर, नीतियां तथा कार्यक्रम बनाने तथा उनके क्रियान्व्यन के लिए उत्तरदायी है।

कृषि

कृषि

कृषि भारत की कुल जनसंख्या के 58.4% से अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन है। देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भी कृषि का योगदान लगभग पांचवें हिस्से के बराबर है। कुल निर्यात का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा कृषि से प्राप्त होता है और यह अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराता है। अस्थिर और कम विकास दर और देश के अनेक हिस्सों में कृषि संकट न केवल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा है बल्कि राष्ट्र के रूप में आर्थिक विकास के लिए कृषि महत्वपूर्ण है।

इस खंड में सरकार की योजनाओं और नीतियों से जुड़े महत्वपूर्ण लिंक दिए गए हैं। इसके अलावा अनेक ऐसी चीजें दी गई हैं जो कृषक समुदायों और कृषि पर निर्भर अन्य लोगों के लिए लाभकारी होंगी।

सामान्य अवलोकन


भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था का आधार कृषि है। भारत के सकल घरेलू उत्‍पाद में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्रों का योगदान 2007-08 और 2008-09 के दौरान क्रमश: 17.8 और 17.1 प्रतिशत रहा। हालांकि कृषि उत्‍पादन मानसून पर भी निर्भर करता है, क्‍योंकि लगभग 55.7 प्रतिशत कृषि-क्षेत्र वर्षा पर निर्भर हैं।

वर्ष 2008-09 के चौथे पूर्व आकलन के अनुसार खाद्यान्‍न का उत्‍पादन 238.88 करोड़ टन होने का अनुमान है। ये पिछले वर्ष की तुलना में 1 करोड़ 3.1 लाख टन अधिक है। चावल का उत्‍पादन 9 करोड़ 91 लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले वर्ष की तुलना में 24 लाख टन अधिक है। गेहूं का उत्‍पादन 8 करोड़ 5 लाख टन होने की उम्‍मीद है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 20 लाख टन अधिक है। इसी तरह मोटे अनाज का उत्‍पादन 3 करोड़ 94 लाख टन होने की उम्‍मीद है, एवं दलहन का उत्‍पादन एक करोड़ 46 लाख टन से अधिक होने का अनुमान है जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 0.99 लाख टन अधिक है। गन्‍ने का उत्‍पादन 2712.54 लाख टन होने की उम्‍मीद है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 769.34 लाख टन कम है। कपास का उत्‍पादन 231.56 लाख गांठें अनुमानित है (प्रत्‍येक गांठ का वजन 170 किलोग्राम) जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 27.28 लाख गांठें अधिक है। 2008-09 के दौरान जूट एवं मेस्‍टा की पैदावार 104.07 लाख गांठें (प्रत्‍येक गांठ का वजन 180 किलोग्राम) होने का अनुमान है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 8.04 लाख गांठ कम है।

वर्ष 2008-09 के दौरान खाद्यान्‍नों का फसल क्षेत्र एक करोड़ 123.22 लाख हेक्‍टेयर रखा गया है, जबकि पिछले वर्ष यह क्षेत्र 124.07 करोड़ हेक्‍टेयर था। चावल का फसल क्षेत्र 453.52 लाख हेक्‍टेयर रखा गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 1,437 लाख हेक्‍टेयर अधिक है। गेहूं की फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 278.77 लाख हेक्‍टेयर अनुमानित है, जो वर्ष 2007-08 के गेहूं के फसल क्षेत्र से 1.62 लाख हेक्‍टेयर कम है। मोटे अनाज का फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 276.17 लाख हेक्‍टेयर अनुमानित है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 8.64 लाख हेक्‍टेयर कम है। अनाजों के न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य में 2008-09 में 2007-08 के मुकाबले बढ़ोतरी 8 प्रतिशत (गेहूं) से लेकर 52.6 प्रतिशत (रागी) तक हुई। साधारण धान के मामले बढ़ोतरी 31.8 प्रतिशत, दालों में 8.1 प्रतिशत (चना) और उड़द तथा मूंग में 48.2 प्रतिशत रही।

देश में 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक चावल, गेहूं और दालों का उत्पादन क्रमशः 10, 8 और 2 लाख टन बढ़ाने के लिए केंद्र प्रायोजित योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन आरंभ की गई।

मिशन में 17 राज्यों के 312 जिलों को शामिल किया गया है और वर्ष 2007-08 के रबी सत्र से लागू हो गई है। एनएफएसएम के अंतर्गत ध्यान और लक्ष्य केंद्रीत तकनीकी हस्तक्षेप की स्थापना के बाद महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है और यह 2008 –09 के तीसरे अग्रीम अनुमान के तथ्यों में परिलक्षित होता है। चावल के उत्पादन को 99.37 लाख टन के स्तर तक उठाया गया है और 2007-08 की तुलना में 2.68 लाख टन की और 2006-07 के मुकाबले 6.02 लाख टन की वृद्धि दर्ज की गई है। इसीतरह की स्थिति गेहूं के मामले में भी है जो पिछले साल की तुलना में गेहूं के उत्पादन में 2.76 लाख टन की वृद्धि दर्शाता है। नतीजतन, 2008-09 के तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, गेहूं का अनुमानित उत्पादन 77.63 लाख टन के स्तर पर है, जो 2006–07 की तुलना में 1.82 लाख टन ज्यादा है। दालों के मामले में 2006-07 के दौरान 14.20 लाख टन उत्पादन दर्ज किया गया। तदनुसार, 2008-09 के तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, दालों का उत्पादन 14.18 लाख टन रहने का अनुमान है, जो 2006-07 की तुलना में उत्पादन प्रवृति लगभग स्थिर है।

देश के वर्षा आधारित क्षेत्रों की समस्या की ओर ध्यान केंद्रीत करने के लिए केंद्र सरकार ने 3 नवंबर 2006 को राष्ट्रीय वर्षापोषित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) का गठन किया। प्राधिकरण एक सलाहकार, नीति निर्धारक और निगरानी निकाय के रूप में कार्यरत है और इसकी भूमिका विभिन्न मौजूदा परियोजनाओं में दिशा निर्देशों की जांच और इस क्षेत्र में सभी बाह्य सहायता प्राप्त परियोजनाओं सहित नई योजनाओं के निर्माण में रहती है।
2008-09 के केंद्रीय बजट में सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों के लिए ऋण माफी और अन्य किसानों के लिए ऋण राहत की घोषणा की है। 2007-08 में कृषि ऋण प्रवाह के लक्ष्य 2,25,000 करोड़ रुपए के मुकाबले 2, 43,569 करोड़ रुपए की उपलब्धि हासिल हुई।
कृषि विस्तार मजबूत हो गया है और 2007-08 के अंत तक 565 जिलों में कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसियां (एटीएमएज) स्थापित की गई हैं।
2005 में राष्ट्रीय बागवानी मिशन की शुरुआत के बाद इसके तहत 8.25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बागवानी फसलें उगाई गई हैं जबकि 1.17 लाख हेक्टेयर को बागानों के अंतर्गत लाया गया है। इसकी शुरुआत के बाद से 1710 नई नर्सरी स्थापित की गई हैं। 2006 में लघु सिंचाई योजना आरंभ होने के बाद से इसके तहत 6 लाख हेक्टेयर भूमि को कवर किया गया है। मौजूदा वर्ष में 4 लाख हेक्टेयर के कवरेज का लक्ष्य है।

प्रमुख फसलें व उनके उत्पादक देश

प्रमुख फसलें  उनके उत्पादक देश

चावल- चीनजापानथाईलैंडइंडोनेशियाम्यांमार,भारतबांग्लादेशब्राजीलवियतनाम।

गेहूँ- संराअमेरिकाकनाडाअर्जेन्टीनाफ्रांस,इटलीभारतचीनतुर्की।

मक्कासंराअमेरिकामैक्सिकोब्राजील,अर्जेन्टीनारोमानियादक्षिणी अफ्रीकाभारतचीन।

ज्वार-बाजरासंराअमेरिकाभारतचीनजापान,सूडानअर्जेन्टीना।

चाय- चीनभारतजापानश्रीलंकाइंडोनेशिया।

कॉफी- ब्राजीलकोलम्बियामध्य अमेरिका,अंगोलायूगांडाजायरे।

गन्ना- क्यूबाभारतपाकिस्तानचीनऑस्ट्रेलिया,मिस्रमैक्सिको।

कपास- संराअमेरिकाचीनभारतमिस्र,पाकिस्तानब्राजील।

पटसन- बांग्लादेशभारतब्राजीलथाईलैंडमिस्र,ताइवानमलेशिया।

तम्बाकू- संराअमेरिकाचीनक्यूबाब्राजील,बुल्गारियारूसजापानफिलीपीन्स।

रबड़इंडोनेशियामलेशियाथाइलैंडश्रीलंका,भारतकंबोडियावियतनामनाइजीरिया।

मानव भूगोल

मानव भूगोल
जनसंख्या का तात्पर्य किसी क्षेत्र अथवा सम्पूर्णविश्व में निवास करने वाले लोगों की संपूर्ण संख्या सेहोता है। पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल का मात्र आठवांहिस्सा ही मानव के रहने योग्य है। संपूर्ण पृथ्वी केतीन-चौथाई हिस्से में महासागर स्थित हैं जबकिथलमंडल का के 14 फीसदी हिस्से में मरुस्थल और27 फीसदी हिस्से में पर्वत स्थित हैं। इसकेअतिरिक्त काफी ऐसा क्षेत्र है जो मानव के निवासयोग्य नहीं है। पृथ्वी के सुदूर उत्तरी क्षेत्र में अंतिममानव बस्ती एलर्ट है जो नुनावुतकनाडा केइल्लेसमेरे द्वीप पर स्थित है। दूसरी ओर सुदूरदक्षिण में अंटार्कटिका पर अमुंडसेन-स्कॉट पोलस्टेशन है। 1650 के बाद के लगभग 300 वर्र्षों मेंविश्व जनसंख्या में इतनी तीव्र गति से वृद्धि हुई हैजितनी किसी पूववर्ती काल में अनुमानित नहीं थी।
दिसंबर 2009 के आंकड़ों के अनुसार विश्व कीजनसंख्या 6,803,000,000 थी। एक मोटे अनुमानके अनुसार 2013 और 2050 में विश्व की जनसंख्याक्रमश: 7 अरब और 9.2 अरब हो जाएगी।
जनसंख्या वृद्धि मुख्य रूप से विकासशील देश में हीहोगी। जनसंख्या घनत्व के लिहाज से भी विश्वजनसंख्या में काफी विविधता है। दुनिया कीबहुसंख्यक जनसंख्या एशिया में निवास करती है।
एक अनुमान के अनुसार 2020 तक दुनिया की 60फीसदी जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में निवास कर रहीहोगी।